Saturday, June 12, 2010




सरल कितना
तरल कितना
  मदिर कितना  
मधुर कितना 
 गंगा की एक नीली लहर सा
आवारा हवा सा
ना मुझ सा ना तुमसा
फिर से कहूं
बादल  सा
सूरज सा 
फूल  सा
एक मीठी भूल सा 
सहज कितना
सरल कितना
   फिर से कहूं....

तुम इतने भी दूर नहीं



तुम इतने भी दूर नहीं

जितनी अधरोँ से मुस्कान

तुम इतने भी दूर नहीं

जितना भ्रमरोँ से गान

कभी दूर हो जाते इतना

जितना कि प्राची से रवि

कभी दूर हो जाते इतना

जितना कि कविता से कवि

फिर भी तेरे होने का

इतना एहसास होता है

जितना कि सूरज खुद

किरनोँ के पास होता है

Wednesday, March 3, 2010

कणिका

मौन
दूर नभ में हलचलों के बीच विश्रांत 
ध्रुव तारा