सरल कितना
तरल कितना
मदिर कितना
मधुर कितना
गंगा की एक नीली लहर सा
आवारा हवा सा
ना मुझ सा ना तुमसा
फिर से कहूं
बादल सा
सूरज सा
फूल सा
एक मीठी भूल सा
सहज कितना
सरल कितना
फिर से कहूं....
जब स्वप्न हर सिँगार के फूलो की तरह झर जाते हैँ और अन्तहीन इच्छाओं का अन्त हो जाता है , प्रकाश का सागर एकाएक निगल लेता है मुझे मेरी समस्त वासनाओँ के साथ मै पुनः जन्मता हूँ बोधिसत्व बन कर